नारी विमर्श >> जहाँ औरतें गढ़ी जाती है जहाँ औरतें गढ़ी जाती हैमृणाल पाण्डे
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प्रस्तुत है नारीवाद आन्दोलन की विडम्बना....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार और पत्रकार मृणाल पाण्डे अपने लेखन में समय तथा
समाज के गम्भीर मासलों को लगातार उठाती रही हैं। भारतीय स्त्रियों के
संघर्ष और जिजीविषा को भी वे इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखती-परखती रही
हैं। यही कारण है कि स्त्री प्रश्न के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के बावजूद
उनका लेखन स्त्री विमर्श के संकीर्ण दायरे में सिमटा हुआ नहीं है। वे
अन्दर के पानियों का सपना देखती हैं, तो ‘नारी वाद आन्दोलन की
विडम्बना’ को भी उजागर करती हैं।
इस पुस्तक में समय-समय पर लिखी गई उनकी टिप्पणियाँ और आलेख संकलित हैं। लेखिका ने राजनीति में ‘महिला’ सशक्तिकरण और ‘पंचायती राज की महिला भागीदारी’ जैसे बड़े सवालों के साथ-साथ कई छोटे-छोटे मामलों और प्रश्नों को भी उठाया गया है, जिनसे गुज़रते हुए एक ऐसा ‘हॉरर शो’ पाठकों के सामने उपस्थित होता है, जिसमें पुरूष वादी समाज की नृशंसता में फँसी स्त्री की छटपटाहटों के कई रूप दिखलाई देते हैं। हमने सिर्फ पराजय ही नहीं, प्रतिकार की छटपटाहट भी सही है। करुणा के भीतर की बेचैनी को रेखांकित करना मृणाल पाण्डे के लेखन की खास विशेषता है।
एक पत्रकार के नाते वे हर छोटे बड़े सवाल को शिद्दत के साथ उठाती हैं, लेकिन अपने पात्रों को जड़ पदार्थ मानकर छोटा नहीं बनाती, बल्कि एक लेखिका के नाते संवेदना के स्तर पर उनसे जुड़ जाती हैं-यही चीज़ मृणाल पाण्डे को सबसे अलग और विशिष्ठ बनाती है।
इस पुस्तक में समय-समय पर लिखी गई उनकी टिप्पणियाँ और आलेख संकलित हैं। लेखिका ने राजनीति में ‘महिला’ सशक्तिकरण और ‘पंचायती राज की महिला भागीदारी’ जैसे बड़े सवालों के साथ-साथ कई छोटे-छोटे मामलों और प्रश्नों को भी उठाया गया है, जिनसे गुज़रते हुए एक ऐसा ‘हॉरर शो’ पाठकों के सामने उपस्थित होता है, जिसमें पुरूष वादी समाज की नृशंसता में फँसी स्त्री की छटपटाहटों के कई रूप दिखलाई देते हैं। हमने सिर्फ पराजय ही नहीं, प्रतिकार की छटपटाहट भी सही है। करुणा के भीतर की बेचैनी को रेखांकित करना मृणाल पाण्डे के लेखन की खास विशेषता है।
एक पत्रकार के नाते वे हर छोटे बड़े सवाल को शिद्दत के साथ उठाती हैं, लेकिन अपने पात्रों को जड़ पदार्थ मानकर छोटा नहीं बनाती, बल्कि एक लेखिका के नाते संवेदना के स्तर पर उनसे जुड़ जाती हैं-यही चीज़ मृणाल पाण्डे को सबसे अलग और विशिष्ठ बनाती है।
जहाँ औरतें गढ़ी जाती हैं
(थियेटर और फिल्मों की खराद पर अभिनेत्रियाँ)
शुरुआत हुई थी हिन्दुस्थानी पारसी थियेटर से। थियेटर, जो यथार्थ से
सामाजिक मुठभेड़ की अटूट प्रक्रिया की शायद सबसे आकर्षक स्थली है।
तीसरी घन्टी बजती, मखमली पर्दे धीमे-धीमे रोल होते हुए ऊपर उठने लगते, और साथ ही शुरु हो जाता ‘चन्द्रावली नाटिका’ का नेपथ्य संगीत। एक कमसिन फूलवाली के फूलों की टोकरी उठाए मंच पर अवतरण के साथ ही उसके कोकिल कंठ से ज्यों ही फूटता मशहूर ‘हिट’ गाना : ‘दो फूल जानी ले लो...’ तो प्रेक्षागृह की भीड़ (सभी पुरुष) को मानो पागलपन का दौरा पड़ जाता। फूलवाली के रोल में सैकड़ों मर्दों को शैदाई बना देनेवाला यह आर्टिस्ट था, लाहौर का एक कमसिन लड़का मास्टर वासी। अपनी लटक-झटक भरी चाल से नन्हे डगों से गाते-गाते मास्टर स्टेज को मापता था, तो सभागार में उपस्थित उसके प्रशंसकों में से कोई सीटी बजाता, कोई उसे हवाई चुम्बन फेंकता, और कोई ‘वासी तू जिन्दा वासी’ ! (वासी तू जीता रहे) चिल्लाता हुआ भावनातिरेक से दामन चाक-चाक करता मूर्च्छित हो जा गिरता।
आज के लोगों, दर्शकों को अपने धीरोदात्त या धीरललित पुरखों के ऐसे व्यवहार के ब्योरे भले ही अतिरंजनापूर्ण या शर्मनाक लगें, लेकिन आज भी हमारी फिल्में बिग बी से लेकर गोविन्दा या आमिर तक को ‘लला तोहे नारि बनाए’ का नाच नचा रही हैं। जस्सी या प्रीति जिन्टा जैसे सितारों का लगातार पीछा करने, उन्हें वक्त-बेवक्त ऊलजलूल फोन करनेवाले पगलाए प्रशंसकों, और ‘आंटी गोविन्दा’ या मन्नो भाभी पर मर मिटनेवालों से वासी के तत्कालीन शैदाई में भी कोई खास फर्क नहीं थे। मास्टक वासी के मंचीय ‘स्त्रीत्व’ का दायरा आज की अभिनेत्रियों से कुछ का फर्क भले रहा हो, लेकिन मौटे तौर से तब से आज तक भारत के किसी भी मंच या छोटे-बड़े पर्दों पर स्त्री की छवि सहज नहीं, बल्कि पुरुषों की पसन्द के आधार पर सायास ही गढ़ी जाती है। जिस मायने में औरतों का चित्रण भारत के कमर्शियल थियेटर या सिनेमा जगत में किया जाता रहा है, उस मायने में शायद कोई भी अभिनेत्री जन्मना ‘औरत’ नहीं होती। स्टेज या पर्दे पर स्त्री के रूप में स्वीकार्य वे तभी होती हैं जब पहले औरत के रूप में उन्हें गढ़ लिया जाता है।
पारसी थियेटर भारत में फिल्मों का पूर्वज था। लिहाजा सबसे पहले ‘औरत’ की सामाजिक रूप से प्रिय या अप्रिय छवि की ब्रांडिंग की वहीं शुरुआत हुई थी। कच्चा माल कमसिन लड़का हो या लड़की। और जब रुपहले पर्दे की दुनिया बनी, तो स्त्रियों के बारे में, अभिनय की औरताना शैली के बारे में जो मानसिकता पारसी थियेटर की थी, वही उसने भी अपनाई। और इसके तहत ‘स्त्री’ बनना सिर्फ चोली में चन्द रुमालों के गोले ठूँस लेना भर नहीं था।
आइए देखें इस प्रक्रिया को, जो हमें अपने घरों, परिवारों से लेकर दफ्तरों विज्ञापनों तक फैली स्त्री की रूढ़ छवि का गूढ़ गठन क्रमिक तौर से समझाती है। कुछेक बरस पहले जब मैं हिन्दुस्तानी पारसी थियेटर के उद्भव और विकास से जुड़ी सामग्री की खोज में जुटी थी, मेरी भेंट हुई मास्टर चम्पालाल से, जो अपने जमाने की एक मशहूर ट्रैवलिंग पारसी थियेटर कम्पनी के नाटकों में स्त्री पात्र का अभिनय करते रहे थे। हिन्दू-मुस्लिम ‘सोशल’ नाटकों से लेकर शेक्सपीयर के नाटकों के उर्दू रूपान्तरणों तक लगभग हर तरह के नाटकों में वे हिन्दू, मुस्लिम, यहूदी और अंग्रेज ललना बन चुके थे। उन्होंने मुझे सविस्तार बताया, कि कमसिन, लड़कों को कम्पनी के उस्तादों द्वारा किस तरह मंच पर एक आदर्श लड़की ‘बनने’ की श्रमसाध्य तालीम दी जाती थी। ‘अब आपको क्या बताएँ मोहतरमा’, वाचाल मास्टरजी ने स्त्रियोचित ढंग से कलाइयाँ लचकाते हुए कहा-‘‘बस यूँ समझ लीजै कि हम तालीमयाफ्ता लौंडों की चाल-ढाल और उठना-बैठना इस कदर परफैक्ट हुआ किए था, कि बुर्का ओढ़ के भले खानदानों की बहू-बेटियाँ हमें इस्टेज पे देखते आती थीं, ताकि ‘इस्तरी’ होने की सही रीत-नीत समझ सकें।’’ मास्टर चम्पालाल की यह बात विश्वसनीय है, क्योंकि मराठी नाटकों के इतिहास में भी एकाधिक बार इस बात का उल्लेख है, कि कैसे मंच पर स्त्रीत्व की विलक्षण प्रस्तुति करनेवाले बाल-गन्धर्व ने भी तत्कालीन महाराष्ट्र के भले घरों की महिलाओं के उठने-बैठने से लेकर नौगजी साड़ी बाँधने के ढंग तक पर एक बेहद गहरी छाप छोड़ी थी। स्टेज पर स्त्री बनकर आए इन अभिनेताओं की छवि के पीछे कोई स्त्रियों से जुड़ा या उनका विरोधी आन्दोलन नहीं था। हर स्त्री पात्र नाटककारों और निर्देशकों (जो हमेशा पुरुष ही रहे आए) के लिए कहीं उस उबाऊ, शब्दहीन अन्धकार को लाँघने की कोशिश था, जो असूर्यम्पश्या भारतीय औरत के चारों ओर सदियों से एक चीन की दीवार की तरह खिंचा रहा है।
हमारे सामाजिक इतिहास की इस जटिल व्यूह-रचना को समझना-सुलझाना बड़ा ही कठिन है, वह भी तब, जब आपकी पीठ पर एक बेतरह पुरलुत्फ, लोकप्रिय और रुमानी कथानक द्वारा भरपूर दर्शक और पैसा खींचने की बाध्यता सिन्दबाद के बूढ़े की तरह आपको हर पल कोंचे जा रही हो। स्मरणीय है कि खुद इन तमाम लेखकों के चारों ओर मध्यवर्ग और निम्नवर्ग के पुरुषों का वह नैराश्य, कुंठा, अवसाद, आत्मवंचना और आत्मपरस्ती भी मौजूद थे, जिनसे वे कभी भी पूरी तरह बरी नहीं हो पाते थे। इसलिए कमर्शियल मंच और पर्दे पर हमें लगातार स्त्री की छवि के यथार्थ का आत्मस्वीकार कम और संहार और फिर (अपनी शर्तों पर) उसका पुनर्संयोजन करनेवाली एक अजीब ब्रह्मा-ग्रन्थि ही अधिक दिखाई देती है। इस लेखिका की राय में पुराने कमर्शियल थियेटर और फिल्मों का निर्मम तटस्थ विवेचन हमें सिर्फ अतीत के इतिहास से ही रू-ब-रू नहीं कराता, बल्कि वर्तमान की विसंगतियों के इतिहास के कई रहस्यों के प्रति एक नई दृष्टि भी देता है।
मास्टर चम्पालाल से जब मैं मिली, वे कोई सत्तर के पेटे में होंगे। मुनहना-सा जिस्म, पान से रंगे ओंठ, आँखों में सुरमे की हलकी रेखा और भँवों के नाटकीय उतार-चढ़ाव या आँखों को विस्फारित कर नैन-सैन के बाण चलाकर गूढ़ या रसीले भेद बताना, और स्टेज की दुनिया के किसी अन्तरंग रहस्य की चर्चा करते वक्त काकु के मजेदार प्रयोग और गर्दन मटकाने की आदत सब वैसा ही था जैसा कस्बाती औरतों के बतियाते बैठे किसी भी झुंड में होता है। उनसे हुई बातचीत ने मेरे आगे स्त्रियों के ‘निर्माण’ की एक पूरी प्रक्रिया और आम परिवारों के मनोजगत से इस बहुरुपिया विश्व के विस्मयकारी और विविधरंगी रिश्तों का एक पूरा संसार धीमे-धीमे उजागर कर दिया। मास्टर चम्पालाल से उस्तादों की देखरेख में गढ़े गए उनके जनाना व्यक्तित्व के विकास की कहानी सुनना, मेरे लिए खुद अपने बचपन की अपनी अनुशासनप्रिय नानी और दर्जनों बुजुर्ग महिला रिश्तेदारों से जुड़ी यादों से गुजरना और उनके गूढ़ार्थ समझना था। नेति-नेति की निषेधात्मकता से जुड़ी ठीक जैसी हिदायतें और टोकाटाकी घर की बुजुर्ग स्त्रियों के हाथों में हमारी पीढ़ी को तथाकथित कुलीन सुन्दरता के फलक पर स्त्री बनाने का आजमूदा औजार थीं, लगभग वैसी ही हिदायतें मास्टर चम्पालाल और उनके संगी ‘लौंडों’ ने भी अपने उस्ताद से सुनी थीं :
‘‘खबरदार ! बाल कभी न कटाना ! लम्बे रेशमी बाल ही तो औरतों का असिल ‘सिंगार’ होते हैं।’’
‘‘जनानियों को मर्दों से भरसक दूर रहना चाहिए। स्टेज के अलावे अगर दोस्तों या घर के लड़कों से भी भेंट करनी हो, तो अपनी ‘आडियंस’ को पता न चलने दो, वर्ना ‘बदनामी’ हो जाएगी।’’
‘‘कम्पनी जब सफर पर निकले तो तुम लोग मर्दों से अलग डिब्बे में ही बैठोगे ! ठिकाने पर पहुँचो तो भी तुम्हारा जो अलग तम्बू होगा उसी में रहोगे। दर्शकों की कितनी ही ‘रिक्वैस्ट’ आएँ, खबरदार, जो किसी को भी अपने तम्बू में न्योता ! मुस्कुरा के आदाब कर दो बस, और कह दो ‘उन’ से कि जी हमें परमीशन नहीं है ‘विजिट’ की !’’
-डांस और म्युजिक के उस्ताद चलने-फिरने उठने-बैठने के जो सलीके सिखाएँ, उनके पूरी तरह अपना लो। खबरदार जो लड़कों की तरह कभी पैर फैला के बैठे, दौड़े या उछले !
-शराब कतई नहीं पीना, और मसालेदार खाना नहीं खाना ! उनसे चेहरे का ‘नूर’ बुझ जाता है, और तबीयत में ‘गर्मी’ और ‘मर्दानगी’ आ जाती है।
1920 के दशक के इस हिन्दुस्तान का समाज, जिसमें मास्टर चम्पालाल जैसे कमसिन लौंडों को महिला किरदार में तब्दील किया जा रहा था, घर से रंगमंच तक स्त्री-पुरुषों की चालढाल ही नहीं, उनकी भाषा और विचारों की भी अलहदगी सुनिश्चित करता था। भले घरों की बहू-बेटियाँ तब बेपर्दा होकर अपने घरों के दीवानखानों में भी नहीं जा सकती थीं, स्कूल-कॉलेज, गली-कूचे-बाजार की कौन कहे ! घरों के भीतर भी मर्दाने अलग होते थे, जहाँ समय-समय पर घर के मर्दों की महफिलें जमतीं और कभी-कभार उसमें ‘वैसी’ औरतें मुजरे को बुलवाई भी जाती थीं। पुरुषों के सन्दर्भ में यह सर्वस्वीकृत था, कि उनकी उद्दाम मर्दानगी सिर्फ घरेलू स्त्रियों के सहवास से तृप्त नहीं होती थी। अतः युवा औरतों ने भी ‘वे’ बीच-बीच में घरेलू स्त्रियों के सपाट घरेलूपन को हताश या असन्तुष्ट होकर एक दार्शनिक खोज की तहत ‘क्षितिज के उस पार’ से आ रही ‘दूसरी किस्म’ की स्त्रियों का मूल निमन्त्रण स्वीकार कर उनके पास चले जाएँगे, या अपने आरक्षित क्षेत्र में उन्हें बुलवा भेजेंगे, चुपचाप यह बात स्वीकार कर ली थी। और बड़ी-बूढ़ियाँ तो इस स्वैराचार को सगर्व अपने खानदान की हैसियत का प्रमाण मानती, बखानती थीं। घरेलू स्त्री की परिवार के सन्दर्भ में गढ़ी गई छवि से इतर खड़े इस ‘दूसरे’ यथार्थ का कम उम्र लड़कों के लिए भी एक दुर्निवार आकर्षण था। और यह उनसे घर और थियेटर फिल्म और कोठों के बीच का अन्तराल बार-बार लँघवाता रहता था। लेकिन आश्चर्य कि इन दूसरी किस्म की स्त्रियों के ग्लैमरम वाह्य जीवन के परे जाकर एक डेरेदार तवायफ या कम्पनी की बाई के मन के स्याह पानी और उसमें दफन हजार फनोंवाले उत्पीड़न का खौफनाक विस्तार छूने की कोई मानवीय उत्सुकता (एकाध भारतेन्दु, शरच्चन्द्र चटर्जी अथवा अमृतलाल नागर जैसे लेखकों को छोड़कर) शायद ही किसी पुरुष में नहीं व्यापती थी। आज भी डिजायनर सूटों, एथनिक कलफदार धोतियों, कुर्तों, जड़ाऊ नगीनों और इत्र-फुलेल से मढ़े-मढ़ाए उन रुमानी सत्यशोधकों की नई पीढ़ियों का जमघट अपने असन्तुष्ट’ मन समेत बदस्तूर इन स्त्रियों के पास कोठों, डांस बारों या मल्टीप्लैक्सों में सईसाँझ आता-जाता रहता है। पर वहाँ चन्द बासी डायलॉगों, नई पुरानी फिल्मों के खुश दास और रुमानी तेवरों तथा कामात्तेजक गानों की फुरहरी से कुछ समय के लिए तृप्त होकर वे सब भी अपने-अपने सुरक्षित घरों की तुलसी के पास ऊँघने को लौट जाते हैं।
नया क्या है ?
नया यह है कि पहले के जमाने में घर की औरतों की इन महफिलों में मौजूदगी अकल्पनीय थी। आज ऐसा नहीं रहा। ऊँचे घरों की बड़े शहरों में रहनेवाली पीढ़ी और नौकरी के सिलसिले में छोटे शहरों से वहाँ आ बसे युवाओं की एक बड़ी भीड़ के लिए न तो घरेलू स्त्रियों की दुनिया से थियेटर-नौटंकी की बाई लोग की दुनिया एकदम अलग रह गई है, और न ही शादी-ब्याह पूरी तरह से एक पारिवारिक जिम्मेदारी ! तब समाज में शादी का सीधा अर्थ था वंश चलाने के लिए जायज सन्तान की उत्पत्ति। विवाहपूर्व पत्नी से रोमांस या विवाहत्तेर अपनी घरवाली से खुला बनाव-लगाव अच्छी नजर से नहीं देखे जाते थे। मैंने खुद अपने श्वसुर-कुल की बुजुर्ग महिलाओं से एक अधपगली महिला रिश्तेदार के बारे में सुना है, जो घर की युवा बहुओं द्वारा शाम को सिंगार-पटार करने पर बेतरह खफा हो उठती थीं-‘‘कुछ तो उन ‘दूसरियों’ के लिए छोड़ो !’’ वे कहती थीं, ‘घर-गिरस्तवालियों का’, आँचल चिकना होवै है, ‘उन’ लोगों ‘मूँ’। तुम लोग उनकी राह पकड़ोगी, तो उन बेचारियों की कमाई-धमाई का क्या होगा ?’’ संयुक्त परिवारों की रेलमपेल और जिम्मेदारियों से भरे ऐसे माहौल में, कहना न होगा, कि अधिकतर विवाहित जोड़ों का संक्षिप्त परस्पर समागम रात के अँधेरों में ही सम्भव होता था ! अलगाव और अपरिचय के सायाम से निर्मित इसी माहौल में स्त्री और पुरुष दोनों से जुड़े मिथकों के कुकरमुत्तों की एक भारी फसल उगती चली गई। और भले घरों से लेकर थियेटर कम्पनियों की छोलदारियों तथा कोठों तक में, इन्हीं मिथकों के अनुरूप स्त्री-पुरुष व्यवहार के समाज स्वीकृत दायरे, तरीके और स्वरूप रचे, सिखाए और बखाने जाते थे। उस वक्त भी, जब बाहर स्वतन्त्रता आन्दोलन और औद्योगिक क्रान्ति की हवाएँ बह रही थीं, यह क्रम जारी रहा।
लिहाजा नई चेतना को समेटनेवाले कथानकों की जगह थियेटर में नाटकों के विषय पुराणों, मिथकों और परीकथाओं तक ही सिमटे रहे। इन नायकों को आज पढ़ने पर लगता है, कि उनकी चेतना बुनियादी तौर पर रुमानी ही है और यह भी, कि इन नाटकों के दिव्य, मिथकीय पात्र उस वक्त के ठोस यथार्थ और सन्दर्भों से बाहर निकलकर ही रचे गए थे। इन नाटकों में खासतौर से औरतों के किरदार लेखकों में गहरे सामाजिक अपरिचय से पैदा हुई मानसिकता के प्रतीक हैं। उनकी कथोपकथन की भाषा असहज, छवियाँ अस्पष्ट और पुरुष पात्रों से उनका व्यवहार यान्त्रिक है। और यह नाटक तत्कालीन भारतीय रूपजीवा स्त्री के अस्तित्व का वह असली द्वन्द्व भी अस्वीकार करते हैं, जिसे इन पात्रों का अभिनय करनेवाली पेशेवर अभिनेत्रियाँ अपने निजी जीवन में झेलती थीं। युद्ध के जमाने में भी भारी तादाद में टिकट खरीदकर प्रेक्षागारों तक आनेवाले दर्शकों के लिए इन सबसे अगोचर-अगम्य-दुर्लभ था। यानी स्त्री-पुरुष प्रेम ! जब तमंचा छूटता और पर्दा उठने पर नल-दमयन् या इन्दर और परियों के प्रेम के संगीतमय किस्से शुरु होते, तो एक चुम्बक की तरह थियेटर से उमड़ा चला आता नशा शहरों की आहालवृद्ध आबादी को खींचने लगता था। घर की बड़ी-बूढ़ियाँ गवाह हैं कि बूढ़े कट्टर लोग हजार डाँटते-पीटते रहे हों, पर युवाओं को उस वक्त भी मनोरंजन की इस गली तक उड़ जाने को मानो पंख लग जाते थे। ‘भिश्ती तक मशकें बेचकर थियेटर के टिकट कटा लेते थे,’’ मास्टर चम्पालाल ने भी मुझसे कहा। लेकिन स्मरणीय है, कि इन नाटकों का स्त्री-पुरुष प्रेम दो स्वाधीन और स्वाधीनताकामी पात्रों का जटिल और विरोधाभासमय प्रेम कभी नहीं बन पाया। अलबत्ता अभिनेत्रियों के निजी जीवन में वह कभी-कभी दिखाई देता रहा। इस पर आगे !
19 वीं सदी खत्म होते-न-होते पारसी नाटक मंडलियों में चर्चा प्रबल हो गई थी, कि अभिनेत्रियों को इन घुमन्तू मंडलियों में लिया जाए या नहीं ? उन्हें लेने और नाटक में संगीत-नृत्य आइटम जोड़ने के सकारात्मक कमर्शियल परिणाम तब भी प्रबल थे, अतः विक्टोरिया मंडली जैसी नामी कम्पनी ने अपनी आशंकाओं को दरकिनार करके कुछ अभिनेत्रियों को गाने-नाचने के लिए अनुबन्धित करना तय किया, और यूँ मिस गौहर, मिस मलका और मिस फातमा जैसी रूपजीवाओं की एंट्री उर्दू-हिन्दी नाटकों में हुई। उधर न्यू आलफ्रेड नाटक मंडली के प्रसिद्ध निर्देशक सोराबाजी ओगरा जैसे लोग अभी भी मंच पर स्त्रियों के लाने के सख्त खिलाफ थे। उनके निर्देशन में स्त्री पात्रों का अभिनय अमृतलाल, नर्मदा शंकर, निसार और मोतीलाल जैसे ‘तैयार’ पुरुष ही करते रहे। सोराबाजी का समर्थन पारसी समाज सुधारक कैखुसरु काबराजी ने भी किया, जो मंच से इतर स्त्री-स्वतन्त्रता पर पारसियों के लोकप्रिय पत्र ‘रास्त गोफ्तार’ में लेखादि लिखते रहे थे।
जैसे-जैसे अभिनेत्रियों के नृत्य-गान के जादू से कम्पनियों का धन्धा चमकने लगा, कम्पनी मालिकान और निर्देशकों के मन की दुविधा भी घट चली। कहते हैं दादाभाई पटेल वह साहसी निर्देशक था जो जोखिम उठाकर लतीफा बेगम और एक अन्य नर्तकी को हैदराबाद से ले आया। इन्दर सभा नाटक में लतीफा बेगम का नृत्य इतना मशहूर हुआ कि दर्शकों के ठट्ठ-के-ठट्ठ उमड़ने लगे। फिर सामाजिक यथार्थ रंग लाया, और एक दिन एक अनाम रसिक रईस लतीफा जान को रंगमंच की विंग से अपने ओवरकोट में छिपाकर फिटन में उड़ा ले गए और जनश्रुति के अनुसार, उन्हें अपने घर में डाल लिया। रईसी के आतंक से कम्पनी ने चूँ तक न की। और लतीफा भी मंच की रानी से पर्दे की रानी बनकर अलोप हो गईं। फिर मंच पर दो पंजाबी तवायफ बहनें-अमीरजान और मोतीजान उतारी गईं, जिनकी गायकी भी बड़ी चर्चित हुईं। लेकिन कुछ समय बाद अमीरजान का भी वही हश्र हुआ जो लतीफा बेगम का। एक रईस व्यापारी ने उनके साथ निकाह कर घर में बिठा लिया। मोतीजान भी इसके बाद कम्पनी छोड़ गई। कुछ अभिनेत्रियों पर शोहरत और फितरत के चलते बुरी बीती। इनमें से एक मिस खातून, गौहरजान की बहन बताई जाती हैं। उनके एक ईर्ष्यालु आशिक ने उनका चेहरा चाकू से काट डाला। अस्पताल से मिस खातून कहाँ गईं, अज्ञात ही रहा। एक यहूदी मिस जमीला और एंग्लो-इंडियन लड़की मेरी फैंटन ने भी पारसी थियेटर में काम किया। मेरी फैंटन का आयरिश फौजी पिता दिल्ली में जादू के खेल दिखाता था। अपने पिता के साथ मेरी एक बार दिल्ली आई हुई जहाँगीर खम्वाटा की ‘एम्प्रेस विक्टोरिया नाटक मंडली’ में खेल दिखाने आई। वहाँ शो के दौरान कम्पनी अभिनेता कावसजी खटाऊ मेरी से मिले, और दोनों के बीच एक लम्बे रोमांस की शुरुआत हुई। कावसजी द्वारा प्रशिक्षित मेरी को उर्दू, हिन्दी, गुजराती भाषाएँ तो आ गईं, पर अभिनय में उसे नाम खास नहीं मिला। अन्ततः वह पारसी वेश में कावसुजी के साथ विवाह कर मेहरबाई बनी और स्टेज से रुखसत होकर गृहिणी बन गई।
ऐसे माहौल में 3 मई, 1913 को दादा साहब फाल्के की बनाई भारत की पहली मोशन फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ के कोरोनेशन थियेटर में रिलीज के साथ ही मनोरंजन के इतिहास और अभिनेत्रियों की लोकप्रियता में एक भव्य दौर की शुरुआत हो गई। गौरतलब है कि अभिनेत्रियों को अनुबंन्धित करने से जुड़े जोखिम के मद्देनजर फिल्मों में भी शुरुआती दौर में स्त्रियों के रोल पुरुष पात्र ही कुछ दिनों तक करते रहे। मसलन ‘राजा हरिश्चन्द्र’ फिल्म में रानी तारामती का ट्रैजिक रोल एक कम उम्र रसोइए, सालुंके ने निभाया था, जो दादा साहब को एक रेस्तराँ में दिख गया था। रेस्तराँ में सालुंके का काम था खाना पकाने का और तनख्वाह थी पन्द्रह रुपए प्रतिमाह। कहते हैं दादा साहब, जो कैमरे के माध्यम को खूब समझते थे, और पर्दे पर यथासम्भव वास्तविकता दिखाने के पक्षधर थे, खुद भी स्त्री का रोल किसी लड़के को नहीं सौंपना चाहते थे। लेकिन उन दिनों जब उत्तर भारत में भले घर की महिलाओं का थियेटर जाना भी बेहद निन्दनीय माना जाता था, स्टेज या पर्दे पर अभिनय के लिए किसी ‘भली’ स्त्री का मिलना मुमकिन होता तो कैसे ? तिस पर बदनाम गलियों की किसी बाई द्वारा रानी तारामती का रोल पर्दे पर प्रस्तुत करना भी शायद परम्परावादी दर्शकों को आसानी से गवारा न होता। फिर बाईयों के संरक्षकों को भी इसमें अपना अहित दिखने लगा था, कहते हैं, एक नाचनेवाली बाई अन्ततः फिल्मों में स्त्री पात्र बनने को राजी हो भी गई थी, लेकिन जब दादा साहब ने उसे प्रशिक्षण देना शुरू किया, तो उसके मालिक को खबर मिल गई, और वह उसे सेठ से जबरन वापस उठा ले गया। लिहाजा पन्द्रह रुपया प्रतिमाह पानेवाले सालुंके की लॉटरी खुल गई, और चलचित्र के प्रदर्शन के साथ ही किसी अनाम रेस्तराँ का यह अनाम-सा मुंडू रातोंरात भारतीय फिल्म जगत का पहला ‘स्टार’ बन गया। सालुंके की अभिनय क्षमता से दादा साहब इतने प्रभावित हुए, कि अपनी अगली फिल्म ‘लंका दहन’ में उन्होंने सालुंके से राम और सीता दोनों का रोल करवाया। विश्व सिनेमा के इतिहास में तब से आज तक यह एक दुर्लभ घटना है, जो भारत के अतिरिक्त कहीं घट भी नहीं सकती थी।
तीसरी घन्टी बजती, मखमली पर्दे धीमे-धीमे रोल होते हुए ऊपर उठने लगते, और साथ ही शुरु हो जाता ‘चन्द्रावली नाटिका’ का नेपथ्य संगीत। एक कमसिन फूलवाली के फूलों की टोकरी उठाए मंच पर अवतरण के साथ ही उसके कोकिल कंठ से ज्यों ही फूटता मशहूर ‘हिट’ गाना : ‘दो फूल जानी ले लो...’ तो प्रेक्षागृह की भीड़ (सभी पुरुष) को मानो पागलपन का दौरा पड़ जाता। फूलवाली के रोल में सैकड़ों मर्दों को शैदाई बना देनेवाला यह आर्टिस्ट था, लाहौर का एक कमसिन लड़का मास्टर वासी। अपनी लटक-झटक भरी चाल से नन्हे डगों से गाते-गाते मास्टर स्टेज को मापता था, तो सभागार में उपस्थित उसके प्रशंसकों में से कोई सीटी बजाता, कोई उसे हवाई चुम्बन फेंकता, और कोई ‘वासी तू जिन्दा वासी’ ! (वासी तू जीता रहे) चिल्लाता हुआ भावनातिरेक से दामन चाक-चाक करता मूर्च्छित हो जा गिरता।
आज के लोगों, दर्शकों को अपने धीरोदात्त या धीरललित पुरखों के ऐसे व्यवहार के ब्योरे भले ही अतिरंजनापूर्ण या शर्मनाक लगें, लेकिन आज भी हमारी फिल्में बिग बी से लेकर गोविन्दा या आमिर तक को ‘लला तोहे नारि बनाए’ का नाच नचा रही हैं। जस्सी या प्रीति जिन्टा जैसे सितारों का लगातार पीछा करने, उन्हें वक्त-बेवक्त ऊलजलूल फोन करनेवाले पगलाए प्रशंसकों, और ‘आंटी गोविन्दा’ या मन्नो भाभी पर मर मिटनेवालों से वासी के तत्कालीन शैदाई में भी कोई खास फर्क नहीं थे। मास्टक वासी के मंचीय ‘स्त्रीत्व’ का दायरा आज की अभिनेत्रियों से कुछ का फर्क भले रहा हो, लेकिन मौटे तौर से तब से आज तक भारत के किसी भी मंच या छोटे-बड़े पर्दों पर स्त्री की छवि सहज नहीं, बल्कि पुरुषों की पसन्द के आधार पर सायास ही गढ़ी जाती है। जिस मायने में औरतों का चित्रण भारत के कमर्शियल थियेटर या सिनेमा जगत में किया जाता रहा है, उस मायने में शायद कोई भी अभिनेत्री जन्मना ‘औरत’ नहीं होती। स्टेज या पर्दे पर स्त्री के रूप में स्वीकार्य वे तभी होती हैं जब पहले औरत के रूप में उन्हें गढ़ लिया जाता है।
पारसी थियेटर भारत में फिल्मों का पूर्वज था। लिहाजा सबसे पहले ‘औरत’ की सामाजिक रूप से प्रिय या अप्रिय छवि की ब्रांडिंग की वहीं शुरुआत हुई थी। कच्चा माल कमसिन लड़का हो या लड़की। और जब रुपहले पर्दे की दुनिया बनी, तो स्त्रियों के बारे में, अभिनय की औरताना शैली के बारे में जो मानसिकता पारसी थियेटर की थी, वही उसने भी अपनाई। और इसके तहत ‘स्त्री’ बनना सिर्फ चोली में चन्द रुमालों के गोले ठूँस लेना भर नहीं था।
आइए देखें इस प्रक्रिया को, जो हमें अपने घरों, परिवारों से लेकर दफ्तरों विज्ञापनों तक फैली स्त्री की रूढ़ छवि का गूढ़ गठन क्रमिक तौर से समझाती है। कुछेक बरस पहले जब मैं हिन्दुस्तानी पारसी थियेटर के उद्भव और विकास से जुड़ी सामग्री की खोज में जुटी थी, मेरी भेंट हुई मास्टर चम्पालाल से, जो अपने जमाने की एक मशहूर ट्रैवलिंग पारसी थियेटर कम्पनी के नाटकों में स्त्री पात्र का अभिनय करते रहे थे। हिन्दू-मुस्लिम ‘सोशल’ नाटकों से लेकर शेक्सपीयर के नाटकों के उर्दू रूपान्तरणों तक लगभग हर तरह के नाटकों में वे हिन्दू, मुस्लिम, यहूदी और अंग्रेज ललना बन चुके थे। उन्होंने मुझे सविस्तार बताया, कि कमसिन, लड़कों को कम्पनी के उस्तादों द्वारा किस तरह मंच पर एक आदर्श लड़की ‘बनने’ की श्रमसाध्य तालीम दी जाती थी। ‘अब आपको क्या बताएँ मोहतरमा’, वाचाल मास्टरजी ने स्त्रियोचित ढंग से कलाइयाँ लचकाते हुए कहा-‘‘बस यूँ समझ लीजै कि हम तालीमयाफ्ता लौंडों की चाल-ढाल और उठना-बैठना इस कदर परफैक्ट हुआ किए था, कि बुर्का ओढ़ के भले खानदानों की बहू-बेटियाँ हमें इस्टेज पे देखते आती थीं, ताकि ‘इस्तरी’ होने की सही रीत-नीत समझ सकें।’’ मास्टर चम्पालाल की यह बात विश्वसनीय है, क्योंकि मराठी नाटकों के इतिहास में भी एकाधिक बार इस बात का उल्लेख है, कि कैसे मंच पर स्त्रीत्व की विलक्षण प्रस्तुति करनेवाले बाल-गन्धर्व ने भी तत्कालीन महाराष्ट्र के भले घरों की महिलाओं के उठने-बैठने से लेकर नौगजी साड़ी बाँधने के ढंग तक पर एक बेहद गहरी छाप छोड़ी थी। स्टेज पर स्त्री बनकर आए इन अभिनेताओं की छवि के पीछे कोई स्त्रियों से जुड़ा या उनका विरोधी आन्दोलन नहीं था। हर स्त्री पात्र नाटककारों और निर्देशकों (जो हमेशा पुरुष ही रहे आए) के लिए कहीं उस उबाऊ, शब्दहीन अन्धकार को लाँघने की कोशिश था, जो असूर्यम्पश्या भारतीय औरत के चारों ओर सदियों से एक चीन की दीवार की तरह खिंचा रहा है।
हमारे सामाजिक इतिहास की इस जटिल व्यूह-रचना को समझना-सुलझाना बड़ा ही कठिन है, वह भी तब, जब आपकी पीठ पर एक बेतरह पुरलुत्फ, लोकप्रिय और रुमानी कथानक द्वारा भरपूर दर्शक और पैसा खींचने की बाध्यता सिन्दबाद के बूढ़े की तरह आपको हर पल कोंचे जा रही हो। स्मरणीय है कि खुद इन तमाम लेखकों के चारों ओर मध्यवर्ग और निम्नवर्ग के पुरुषों का वह नैराश्य, कुंठा, अवसाद, आत्मवंचना और आत्मपरस्ती भी मौजूद थे, जिनसे वे कभी भी पूरी तरह बरी नहीं हो पाते थे। इसलिए कमर्शियल मंच और पर्दे पर हमें लगातार स्त्री की छवि के यथार्थ का आत्मस्वीकार कम और संहार और फिर (अपनी शर्तों पर) उसका पुनर्संयोजन करनेवाली एक अजीब ब्रह्मा-ग्रन्थि ही अधिक दिखाई देती है। इस लेखिका की राय में पुराने कमर्शियल थियेटर और फिल्मों का निर्मम तटस्थ विवेचन हमें सिर्फ अतीत के इतिहास से ही रू-ब-रू नहीं कराता, बल्कि वर्तमान की विसंगतियों के इतिहास के कई रहस्यों के प्रति एक नई दृष्टि भी देता है।
मास्टर चम्पालाल से जब मैं मिली, वे कोई सत्तर के पेटे में होंगे। मुनहना-सा जिस्म, पान से रंगे ओंठ, आँखों में सुरमे की हलकी रेखा और भँवों के नाटकीय उतार-चढ़ाव या आँखों को विस्फारित कर नैन-सैन के बाण चलाकर गूढ़ या रसीले भेद बताना, और स्टेज की दुनिया के किसी अन्तरंग रहस्य की चर्चा करते वक्त काकु के मजेदार प्रयोग और गर्दन मटकाने की आदत सब वैसा ही था जैसा कस्बाती औरतों के बतियाते बैठे किसी भी झुंड में होता है। उनसे हुई बातचीत ने मेरे आगे स्त्रियों के ‘निर्माण’ की एक पूरी प्रक्रिया और आम परिवारों के मनोजगत से इस बहुरुपिया विश्व के विस्मयकारी और विविधरंगी रिश्तों का एक पूरा संसार धीमे-धीमे उजागर कर दिया। मास्टर चम्पालाल से उस्तादों की देखरेख में गढ़े गए उनके जनाना व्यक्तित्व के विकास की कहानी सुनना, मेरे लिए खुद अपने बचपन की अपनी अनुशासनप्रिय नानी और दर्जनों बुजुर्ग महिला रिश्तेदारों से जुड़ी यादों से गुजरना और उनके गूढ़ार्थ समझना था। नेति-नेति की निषेधात्मकता से जुड़ी ठीक जैसी हिदायतें और टोकाटाकी घर की बुजुर्ग स्त्रियों के हाथों में हमारी पीढ़ी को तथाकथित कुलीन सुन्दरता के फलक पर स्त्री बनाने का आजमूदा औजार थीं, लगभग वैसी ही हिदायतें मास्टर चम्पालाल और उनके संगी ‘लौंडों’ ने भी अपने उस्ताद से सुनी थीं :
‘‘खबरदार ! बाल कभी न कटाना ! लम्बे रेशमी बाल ही तो औरतों का असिल ‘सिंगार’ होते हैं।’’
‘‘जनानियों को मर्दों से भरसक दूर रहना चाहिए। स्टेज के अलावे अगर दोस्तों या घर के लड़कों से भी भेंट करनी हो, तो अपनी ‘आडियंस’ को पता न चलने दो, वर्ना ‘बदनामी’ हो जाएगी।’’
‘‘कम्पनी जब सफर पर निकले तो तुम लोग मर्दों से अलग डिब्बे में ही बैठोगे ! ठिकाने पर पहुँचो तो भी तुम्हारा जो अलग तम्बू होगा उसी में रहोगे। दर्शकों की कितनी ही ‘रिक्वैस्ट’ आएँ, खबरदार, जो किसी को भी अपने तम्बू में न्योता ! मुस्कुरा के आदाब कर दो बस, और कह दो ‘उन’ से कि जी हमें परमीशन नहीं है ‘विजिट’ की !’’
-डांस और म्युजिक के उस्ताद चलने-फिरने उठने-बैठने के जो सलीके सिखाएँ, उनके पूरी तरह अपना लो। खबरदार जो लड़कों की तरह कभी पैर फैला के बैठे, दौड़े या उछले !
-शराब कतई नहीं पीना, और मसालेदार खाना नहीं खाना ! उनसे चेहरे का ‘नूर’ बुझ जाता है, और तबीयत में ‘गर्मी’ और ‘मर्दानगी’ आ जाती है।
1920 के दशक के इस हिन्दुस्तान का समाज, जिसमें मास्टर चम्पालाल जैसे कमसिन लौंडों को महिला किरदार में तब्दील किया जा रहा था, घर से रंगमंच तक स्त्री-पुरुषों की चालढाल ही नहीं, उनकी भाषा और विचारों की भी अलहदगी सुनिश्चित करता था। भले घरों की बहू-बेटियाँ तब बेपर्दा होकर अपने घरों के दीवानखानों में भी नहीं जा सकती थीं, स्कूल-कॉलेज, गली-कूचे-बाजार की कौन कहे ! घरों के भीतर भी मर्दाने अलग होते थे, जहाँ समय-समय पर घर के मर्दों की महफिलें जमतीं और कभी-कभार उसमें ‘वैसी’ औरतें मुजरे को बुलवाई भी जाती थीं। पुरुषों के सन्दर्भ में यह सर्वस्वीकृत था, कि उनकी उद्दाम मर्दानगी सिर्फ घरेलू स्त्रियों के सहवास से तृप्त नहीं होती थी। अतः युवा औरतों ने भी ‘वे’ बीच-बीच में घरेलू स्त्रियों के सपाट घरेलूपन को हताश या असन्तुष्ट होकर एक दार्शनिक खोज की तहत ‘क्षितिज के उस पार’ से आ रही ‘दूसरी किस्म’ की स्त्रियों का मूल निमन्त्रण स्वीकार कर उनके पास चले जाएँगे, या अपने आरक्षित क्षेत्र में उन्हें बुलवा भेजेंगे, चुपचाप यह बात स्वीकार कर ली थी। और बड़ी-बूढ़ियाँ तो इस स्वैराचार को सगर्व अपने खानदान की हैसियत का प्रमाण मानती, बखानती थीं। घरेलू स्त्री की परिवार के सन्दर्भ में गढ़ी गई छवि से इतर खड़े इस ‘दूसरे’ यथार्थ का कम उम्र लड़कों के लिए भी एक दुर्निवार आकर्षण था। और यह उनसे घर और थियेटर फिल्म और कोठों के बीच का अन्तराल बार-बार लँघवाता रहता था। लेकिन आश्चर्य कि इन दूसरी किस्म की स्त्रियों के ग्लैमरम वाह्य जीवन के परे जाकर एक डेरेदार तवायफ या कम्पनी की बाई के मन के स्याह पानी और उसमें दफन हजार फनोंवाले उत्पीड़न का खौफनाक विस्तार छूने की कोई मानवीय उत्सुकता (एकाध भारतेन्दु, शरच्चन्द्र चटर्जी अथवा अमृतलाल नागर जैसे लेखकों को छोड़कर) शायद ही किसी पुरुष में नहीं व्यापती थी। आज भी डिजायनर सूटों, एथनिक कलफदार धोतियों, कुर्तों, जड़ाऊ नगीनों और इत्र-फुलेल से मढ़े-मढ़ाए उन रुमानी सत्यशोधकों की नई पीढ़ियों का जमघट अपने असन्तुष्ट’ मन समेत बदस्तूर इन स्त्रियों के पास कोठों, डांस बारों या मल्टीप्लैक्सों में सईसाँझ आता-जाता रहता है। पर वहाँ चन्द बासी डायलॉगों, नई पुरानी फिल्मों के खुश दास और रुमानी तेवरों तथा कामात्तेजक गानों की फुरहरी से कुछ समय के लिए तृप्त होकर वे सब भी अपने-अपने सुरक्षित घरों की तुलसी के पास ऊँघने को लौट जाते हैं।
नया क्या है ?
नया यह है कि पहले के जमाने में घर की औरतों की इन महफिलों में मौजूदगी अकल्पनीय थी। आज ऐसा नहीं रहा। ऊँचे घरों की बड़े शहरों में रहनेवाली पीढ़ी और नौकरी के सिलसिले में छोटे शहरों से वहाँ आ बसे युवाओं की एक बड़ी भीड़ के लिए न तो घरेलू स्त्रियों की दुनिया से थियेटर-नौटंकी की बाई लोग की दुनिया एकदम अलग रह गई है, और न ही शादी-ब्याह पूरी तरह से एक पारिवारिक जिम्मेदारी ! तब समाज में शादी का सीधा अर्थ था वंश चलाने के लिए जायज सन्तान की उत्पत्ति। विवाहपूर्व पत्नी से रोमांस या विवाहत्तेर अपनी घरवाली से खुला बनाव-लगाव अच्छी नजर से नहीं देखे जाते थे। मैंने खुद अपने श्वसुर-कुल की बुजुर्ग महिलाओं से एक अधपगली महिला रिश्तेदार के बारे में सुना है, जो घर की युवा बहुओं द्वारा शाम को सिंगार-पटार करने पर बेतरह खफा हो उठती थीं-‘‘कुछ तो उन ‘दूसरियों’ के लिए छोड़ो !’’ वे कहती थीं, ‘घर-गिरस्तवालियों का’, आँचल चिकना होवै है, ‘उन’ लोगों ‘मूँ’। तुम लोग उनकी राह पकड़ोगी, तो उन बेचारियों की कमाई-धमाई का क्या होगा ?’’ संयुक्त परिवारों की रेलमपेल और जिम्मेदारियों से भरे ऐसे माहौल में, कहना न होगा, कि अधिकतर विवाहित जोड़ों का संक्षिप्त परस्पर समागम रात के अँधेरों में ही सम्भव होता था ! अलगाव और अपरिचय के सायाम से निर्मित इसी माहौल में स्त्री और पुरुष दोनों से जुड़े मिथकों के कुकरमुत्तों की एक भारी फसल उगती चली गई। और भले घरों से लेकर थियेटर कम्पनियों की छोलदारियों तथा कोठों तक में, इन्हीं मिथकों के अनुरूप स्त्री-पुरुष व्यवहार के समाज स्वीकृत दायरे, तरीके और स्वरूप रचे, सिखाए और बखाने जाते थे। उस वक्त भी, जब बाहर स्वतन्त्रता आन्दोलन और औद्योगिक क्रान्ति की हवाएँ बह रही थीं, यह क्रम जारी रहा।
लिहाजा नई चेतना को समेटनेवाले कथानकों की जगह थियेटर में नाटकों के विषय पुराणों, मिथकों और परीकथाओं तक ही सिमटे रहे। इन नायकों को आज पढ़ने पर लगता है, कि उनकी चेतना बुनियादी तौर पर रुमानी ही है और यह भी, कि इन नाटकों के दिव्य, मिथकीय पात्र उस वक्त के ठोस यथार्थ और सन्दर्भों से बाहर निकलकर ही रचे गए थे। इन नाटकों में खासतौर से औरतों के किरदार लेखकों में गहरे सामाजिक अपरिचय से पैदा हुई मानसिकता के प्रतीक हैं। उनकी कथोपकथन की भाषा असहज, छवियाँ अस्पष्ट और पुरुष पात्रों से उनका व्यवहार यान्त्रिक है। और यह नाटक तत्कालीन भारतीय रूपजीवा स्त्री के अस्तित्व का वह असली द्वन्द्व भी अस्वीकार करते हैं, जिसे इन पात्रों का अभिनय करनेवाली पेशेवर अभिनेत्रियाँ अपने निजी जीवन में झेलती थीं। युद्ध के जमाने में भी भारी तादाद में टिकट खरीदकर प्रेक्षागारों तक आनेवाले दर्शकों के लिए इन सबसे अगोचर-अगम्य-दुर्लभ था। यानी स्त्री-पुरुष प्रेम ! जब तमंचा छूटता और पर्दा उठने पर नल-दमयन् या इन्दर और परियों के प्रेम के संगीतमय किस्से शुरु होते, तो एक चुम्बक की तरह थियेटर से उमड़ा चला आता नशा शहरों की आहालवृद्ध आबादी को खींचने लगता था। घर की बड़ी-बूढ़ियाँ गवाह हैं कि बूढ़े कट्टर लोग हजार डाँटते-पीटते रहे हों, पर युवाओं को उस वक्त भी मनोरंजन की इस गली तक उड़ जाने को मानो पंख लग जाते थे। ‘भिश्ती तक मशकें बेचकर थियेटर के टिकट कटा लेते थे,’’ मास्टर चम्पालाल ने भी मुझसे कहा। लेकिन स्मरणीय है, कि इन नाटकों का स्त्री-पुरुष प्रेम दो स्वाधीन और स्वाधीनताकामी पात्रों का जटिल और विरोधाभासमय प्रेम कभी नहीं बन पाया। अलबत्ता अभिनेत्रियों के निजी जीवन में वह कभी-कभी दिखाई देता रहा। इस पर आगे !
19 वीं सदी खत्म होते-न-होते पारसी नाटक मंडलियों में चर्चा प्रबल हो गई थी, कि अभिनेत्रियों को इन घुमन्तू मंडलियों में लिया जाए या नहीं ? उन्हें लेने और नाटक में संगीत-नृत्य आइटम जोड़ने के सकारात्मक कमर्शियल परिणाम तब भी प्रबल थे, अतः विक्टोरिया मंडली जैसी नामी कम्पनी ने अपनी आशंकाओं को दरकिनार करके कुछ अभिनेत्रियों को गाने-नाचने के लिए अनुबन्धित करना तय किया, और यूँ मिस गौहर, मिस मलका और मिस फातमा जैसी रूपजीवाओं की एंट्री उर्दू-हिन्दी नाटकों में हुई। उधर न्यू आलफ्रेड नाटक मंडली के प्रसिद्ध निर्देशक सोराबाजी ओगरा जैसे लोग अभी भी मंच पर स्त्रियों के लाने के सख्त खिलाफ थे। उनके निर्देशन में स्त्री पात्रों का अभिनय अमृतलाल, नर्मदा शंकर, निसार और मोतीलाल जैसे ‘तैयार’ पुरुष ही करते रहे। सोराबाजी का समर्थन पारसी समाज सुधारक कैखुसरु काबराजी ने भी किया, जो मंच से इतर स्त्री-स्वतन्त्रता पर पारसियों के लोकप्रिय पत्र ‘रास्त गोफ्तार’ में लेखादि लिखते रहे थे।
जैसे-जैसे अभिनेत्रियों के नृत्य-गान के जादू से कम्पनियों का धन्धा चमकने लगा, कम्पनी मालिकान और निर्देशकों के मन की दुविधा भी घट चली। कहते हैं दादाभाई पटेल वह साहसी निर्देशक था जो जोखिम उठाकर लतीफा बेगम और एक अन्य नर्तकी को हैदराबाद से ले आया। इन्दर सभा नाटक में लतीफा बेगम का नृत्य इतना मशहूर हुआ कि दर्शकों के ठट्ठ-के-ठट्ठ उमड़ने लगे। फिर सामाजिक यथार्थ रंग लाया, और एक दिन एक अनाम रसिक रईस लतीफा जान को रंगमंच की विंग से अपने ओवरकोट में छिपाकर फिटन में उड़ा ले गए और जनश्रुति के अनुसार, उन्हें अपने घर में डाल लिया। रईसी के आतंक से कम्पनी ने चूँ तक न की। और लतीफा भी मंच की रानी से पर्दे की रानी बनकर अलोप हो गईं। फिर मंच पर दो पंजाबी तवायफ बहनें-अमीरजान और मोतीजान उतारी गईं, जिनकी गायकी भी बड़ी चर्चित हुईं। लेकिन कुछ समय बाद अमीरजान का भी वही हश्र हुआ जो लतीफा बेगम का। एक रईस व्यापारी ने उनके साथ निकाह कर घर में बिठा लिया। मोतीजान भी इसके बाद कम्पनी छोड़ गई। कुछ अभिनेत्रियों पर शोहरत और फितरत के चलते बुरी बीती। इनमें से एक मिस खातून, गौहरजान की बहन बताई जाती हैं। उनके एक ईर्ष्यालु आशिक ने उनका चेहरा चाकू से काट डाला। अस्पताल से मिस खातून कहाँ गईं, अज्ञात ही रहा। एक यहूदी मिस जमीला और एंग्लो-इंडियन लड़की मेरी फैंटन ने भी पारसी थियेटर में काम किया। मेरी फैंटन का आयरिश फौजी पिता दिल्ली में जादू के खेल दिखाता था। अपने पिता के साथ मेरी एक बार दिल्ली आई हुई जहाँगीर खम्वाटा की ‘एम्प्रेस विक्टोरिया नाटक मंडली’ में खेल दिखाने आई। वहाँ शो के दौरान कम्पनी अभिनेता कावसजी खटाऊ मेरी से मिले, और दोनों के बीच एक लम्बे रोमांस की शुरुआत हुई। कावसजी द्वारा प्रशिक्षित मेरी को उर्दू, हिन्दी, गुजराती भाषाएँ तो आ गईं, पर अभिनय में उसे नाम खास नहीं मिला। अन्ततः वह पारसी वेश में कावसुजी के साथ विवाह कर मेहरबाई बनी और स्टेज से रुखसत होकर गृहिणी बन गई।
ऐसे माहौल में 3 मई, 1913 को दादा साहब फाल्के की बनाई भारत की पहली मोशन फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ के कोरोनेशन थियेटर में रिलीज के साथ ही मनोरंजन के इतिहास और अभिनेत्रियों की लोकप्रियता में एक भव्य दौर की शुरुआत हो गई। गौरतलब है कि अभिनेत्रियों को अनुबंन्धित करने से जुड़े जोखिम के मद्देनजर फिल्मों में भी शुरुआती दौर में स्त्रियों के रोल पुरुष पात्र ही कुछ दिनों तक करते रहे। मसलन ‘राजा हरिश्चन्द्र’ फिल्म में रानी तारामती का ट्रैजिक रोल एक कम उम्र रसोइए, सालुंके ने निभाया था, जो दादा साहब को एक रेस्तराँ में दिख गया था। रेस्तराँ में सालुंके का काम था खाना पकाने का और तनख्वाह थी पन्द्रह रुपए प्रतिमाह। कहते हैं दादा साहब, जो कैमरे के माध्यम को खूब समझते थे, और पर्दे पर यथासम्भव वास्तविकता दिखाने के पक्षधर थे, खुद भी स्त्री का रोल किसी लड़के को नहीं सौंपना चाहते थे। लेकिन उन दिनों जब उत्तर भारत में भले घर की महिलाओं का थियेटर जाना भी बेहद निन्दनीय माना जाता था, स्टेज या पर्दे पर अभिनय के लिए किसी ‘भली’ स्त्री का मिलना मुमकिन होता तो कैसे ? तिस पर बदनाम गलियों की किसी बाई द्वारा रानी तारामती का रोल पर्दे पर प्रस्तुत करना भी शायद परम्परावादी दर्शकों को आसानी से गवारा न होता। फिर बाईयों के संरक्षकों को भी इसमें अपना अहित दिखने लगा था, कहते हैं, एक नाचनेवाली बाई अन्ततः फिल्मों में स्त्री पात्र बनने को राजी हो भी गई थी, लेकिन जब दादा साहब ने उसे प्रशिक्षण देना शुरू किया, तो उसके मालिक को खबर मिल गई, और वह उसे सेठ से जबरन वापस उठा ले गया। लिहाजा पन्द्रह रुपया प्रतिमाह पानेवाले सालुंके की लॉटरी खुल गई, और चलचित्र के प्रदर्शन के साथ ही किसी अनाम रेस्तराँ का यह अनाम-सा मुंडू रातोंरात भारतीय फिल्म जगत का पहला ‘स्टार’ बन गया। सालुंके की अभिनय क्षमता से दादा साहब इतने प्रभावित हुए, कि अपनी अगली फिल्म ‘लंका दहन’ में उन्होंने सालुंके से राम और सीता दोनों का रोल करवाया। विश्व सिनेमा के इतिहास में तब से आज तक यह एक दुर्लभ घटना है, जो भारत के अतिरिक्त कहीं घट भी नहीं सकती थी।
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